गम को छिपाया जा सका ,
दो बोल प्यारे बोलकर |
पर आग थी बुझ न सकी ,
मुस्कान का जल ढोलकर ||
थी चुभन बढ़ती गई ,
और दर्द भी बढता गया |
ये गम किसी से कम नहीं ,
बढ़ता रहा दिल खोलकर ||
जो घाव था नासूर बन ,
सत्ता दिखाता है पुनः |
गर बनाया बांध जो ,
गम की नदी पर वेबजह ||
जब सब्र टूटेगा ह्रदय का ,
बांध भी खुल जायेगा |
दर्द का भंडार फिर ,
बाहर निकलकर आएगा ||
बात यदि मानो मेरी ,
गम न छुपाना इस तरह |
बांध पीड़ा का ह्रदय में ,
ना बनाना इस तरह ||
खोल देना द्वार दिल के ,
मोड़ना रुख ओर मेरी |
रेत हूँ गम सोंखने को ,
या समझ पत्थर की ढेरी ||
बाँट देना गम ह्रदय के ,
भार कम हो जायेगा |
मन भरेगा फिर ख़ुशी से ,
तब गम नहीं सताएगा ||
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