मेरा मन हो जाता विचलित
उठती है लहरें सागर वत |
आमूलचूल तक सिहरन सी
कर देती है मुझको आहत||
ऐसा तूफान उफनता है
कर देता है मुझको आहत |
मेरा मन घबरा जाता है
खोई सी जाती है हिम्मत ||
जब उठते है कई प्रश्न
मेरे जीवन से सम्बंधित |
है प्रश्न कई कोई अंत नहीं
लगता है मानो हो पर्वत ||
मै जीता तो हूँ पर किसको ?
मेरा जग से क्या नाता है ?
क्यों आया हूँ ? क्यों जाऊंगा ?
क्यों दौलत यहाँ कमाऊंगा?
क्यों देख रहा? क्यों जान रहा ?
क्यों सबको अपना मान रहा?
जब जाना है एक दिन सबको
फिर रिश्ता क्यों पहचान रहा ?
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( अधूरी कविता )
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