घट घट कर जीवन फिर मरघट ,
जा पहुंचा है सरपट सरपट |
बस याद बची कुछ और नहीं,
कुछ देर रही फिर याद नहीं ||
थे लोग कई जो बीत चुके ,
ऐसे किस किस को याद रखें|
अस्तित्व बनाने आये थे,
अस्तित्व बनाते मिट बैठे ||
अंतिम क्षण तक संघर्ष किया ,
अस्तित्व बनाने को अपना |
पर आश स्वांस के साथ गयी,
और टूट गया सारा सपना ||
सुख जीवन के सारे त्यागे,
पहचान बनाकर जाऊंगा |
जीवन भर कठिन परिश्रम कर,
अपनी पहचान बनाऊंगा ||
फिर बीत गया सारा जीवन ,
दुनिया में पहचान बन गयी |
पहचान बने कुछ दिन गुजरे ,
पर मृत्यु उसके गले पड़ गयी ||
खुद को पहचान नहीं पाया ,
खुद जो पहचान बनायीं थी |
जब पाया नव नर तन उसने,
अपनी पहचान गवाई थी ||
में देख रहा फिर सोच रहा,
क्यों प्राणी इसमें घूम रहा |
क्यों नहीं खोजता वे राहें ,
जो इसे उन्नति पर ले जाये||
पर में भी हूँ ऐसे रथ पर,
जो नहीं अभी उन्नति पथ पर|
सो सोच रहा किस ओर चलूँ ,
जिस पर चलकर सन्मार्ग मिलूं||
पर समझ नहीं मुझको आता ,
कैसे मंजिल मंजिल को पा जाता|
सो छोड़ रहा इसको तुम पर,
यदि राह मिले सब साथ चलें ||
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